Sunday, October 30, 2016

सिंहस्थ कुम्भ महापर्व

सिंहस्थ कुम्भ महापर्व उज्जैन का महान धार्मिक पर्व है। बारह वर्षों के अन्तराल से यह पर्व तब मनाया जाता है जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित रहता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियाँ चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारम्भ होती है और पूरे मास में वैशाख पूर्णिमा के अन्तिम स्नान तक विभिन्न तिथियों में संपन्न होती है। उज्जैन के इस महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्वपूर्ण माने गये हैं।
उज्जैन में आयोजित होने वाले इस भव्य समारोह के लिए विभिन्न पारम्परिक कारक ढूँढे जा सकते हैं। पुराणों के अनुसार देवों और दानवों के सहयोग से सम्पन्न समुद्रमन्थन से अन्य वस्तुओं के अलावा अमृत से भरा हुआ एक कुम्भ (घड़ा) भी निकला था।
देवता दानवों के साथ अमृत नहीं बाँटना चाहते थे। देवराज इन्द्र के संकेत पर उनके पुत्र जयन्त ने अमृत कुम्भ लेकर भागने की चेष्ठा की, तो ऐसे में स्वाभाविक रूप से दानवों ने उनका पीछा किया। अमृत-कुम्भ के लिए स्वर्ग में बारह दिन तक संघर्ष चलता रहा और परिणामस्वरूप हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में अमृत की कुछ बूँदें गिर गयीं। यहाँ की पवित्र नदियों को अमृत की बूँदें प्राप्त हुईं। अमृत कुम्भ के लिए स्वर्ग में बारह दिनों तक संघर्ष हुआ, जो धरती पर बारह वर्ष के बराबर है। अन्य तीन स्थानों पर यह पर्व कुम्भ के नाम से अधिक लोकप्रिय है। सभी चार स्थानों के लिए बारह वर्ष का यह चक्र समान है।


समुद्र मन्थन

सिंहस्थ कुम्भ महापर्व एक विशाल आध्यात्मिक आयोजन है, जो मानवता के लिए जाना जाता है। इसके नाम की उत्पत्ति अमरत्व का पात्रसे हुई है। पौराणिक कथाओं में इसे अमृत कुण्डके रूप में जाना जाता है।
भागवत पुराण, विष्णु पुराण, महाभारत और रामायण आदि महान ग्रन्थों में भी अमृत कुंड और अमृत कलश का उल्लेख मिलता है। ऐसा माना जाता है कि देवता और असुरों द्वारा किये समुद्र मंथनसे अमृत कलश की प्राप्ति हुई थी। इस कलश को प्राप्त करने के लिए असुर और देवताओं में 12 दिनों तक संघर्ष हुआ था। असुरों से सुरक्षित रखने के लिए अमृत कलश को देवराज इन्द्र के सुपुत्र जयंत युद्ध के मैदान से लेकर भागे। असुरों ने पीछा किया और कलश प्राप्त करने में संघर्ष में अमृत की कुछ बूँदे पृथ्वी पर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में गिर गयीं। ये बूंदें गंगा, यमुना, गोदावरी और क्षिप्रा नदियों में मिल गयीं, जिससे इन नदियों के जल में आध्यात्मिक और अतुलनीय शक्तियाँ उत्पन्न हो गयीं।
सिंहस्थ कुम्भ महापर्व चार स्थानों अर्थात हरिद्वार, इलाहाबाद, नासिक और उज्जैन में प्रत्येक बारह वर्ष में आयोजित किया जाता है। लाखों श्रद्धालु पवित्र नदियों में स्नान के लिए आते हैं और श्रद्धालु ऐसा मानते हैं कि इससे उन्हें जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति अर्थात मोक्ष की प्राप्ति होगी।

चौदह रत्न


o    कालकूट
o    ऐरावत
o    कामधेनु
o    उच्चैःश्रवा
o    कौस्तुभमणि
o    कल्पवृक्ष
o    रम्भा नामक अप्सरा
o    लक्ष्मी
o    वारुणी मदिरा
o    चन्द्रमा
o    पारिजात
o    शंख
o    धन्वन्तरि
o    अमृत

ज्योतिषीय महत्व

कुम्भ मेला हरिद्वार, इलाहाबाद (प्रयाग), नासिक और उज्जैन में बारह वर्षों के अन्तराल से मनाया जाता है। इनमें से सभी स्थानों पर आयोजित होने वाले कुम्भ मेले को विभिन्न राशियों में सूर्य और बृहस्पति की स्थितियाँ निर्धारित करती हैं। हरिद्वार में यह तब आयोजित होता है, जब सूर्य मेष राशि और बृहस्पति कुम्भ राशि में हो। इलाहाबाद (प्रयाग) में यह तब आयोजित होता है, जब सूर्य मकर राशि और बृहस्पति वृष राशि में हो। यह नासिक में तब आयोजित होता है, जब बृहस्पति सिंह राशि में प्रवेश करता है। इसके अलावा जब अमावस्या पर कर्क राशि में सूर्य और चन्द्रमा प्रवेश करते हैं, उस समय भी नासिक में कुम्भ का आयोजन होता है। उज्जैन में मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरु के आने पर यहाँ महाकुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है, जिसे सिंहस्थ कुम्भ महापर्व के नाम से देशभर में जाना जाता है। सिंहस्थ कुम्भ महापर्व के अवसर पर उज्जैन का धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व स्वयं ही कई गुना बढ़ जाता है। साधु-संतों का एकत्र होना, सर्वत्र पावन स्वरों का गुंजन, शब्द एवं स्वर शक्ति का आत्मिक प्रभाव यहाँ प्राणी मात्र को अलौकिक शान्ति प्रदान करता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियाँ चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारम्भ होती हैं और वैशाख माह की पूर्णिमा तक यह चलता है।

सिंहस्थ कुम्भ महापर्व 2016

प्राचीन भारत में आध्यात्मिक सत्यों को सांकेतिक कथाओं के माध्यम से सुरक्षित रखा जाता था कालान्तर मे यही कथाएँ विभिन्न परम्पराओं की जनक सिद्ध हुई और हमारी रहस्यमयी, विविधरंगी संस्कृति ने आकार ग्रहण किया। इसलिए यह सम्भव नहीं था कि कुम्भ जैसे आयोजनों के पीछे कोई कथा न हो। पुराणों में इसकी कथा है। चाहे आज इस कथा के पीछे के सत्य की कोई छाया भी हमारी  स्मृति में शेष न हो, लेकिन कथा तो है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में हिमालय के समीप क्षीरोद नामक समुद्र तट पर देवताओं तथा दानवों ने एकत्र होकर फल प्राप्ति के लिए समुद्र-मन्थन किया। फलस्वरूप जो 14 रत्न प्राप्त हुए । उनमें श्री रम्भा, विष, वारुणी, अमिय, शंख, गजराज, धन्वन्तरि, धनु, तरु, चन्द्रमा, मणि और बाजि । इनमें से अमृत का कुम्भ अर्थात घड़ा सबसे अन्त में निकला। उसकी अमर करने वाली शक्ति से देवताओं को यह चिन्ता हुई कि यदि दानवों ने इसका पान कर लिया तो दोनों में संघर्ष स्थायी हो जाएगा। इसलिए देवताओं ने इन्द्र के पुत्र जयन्त को अमृत कलश को लेकर आकाश में उड़ जाने का संकेत किया। जयन्त अमृत के कलश को लेकर आकाश में उड़ गया और दानव उसे छीनने के लिए उसके पीछे पड़ गये। इस प्रकार अमृत-कलश को लेकर देवताओं व दानवों में संघर्ष छिड़ गया। दोनों पक्षों में 12 दिन तक संघर्ष चला। इस दौरान दानवों ने जयंत को पकड़कर अमृत कलश पर अधिकार करना चाहा। छीना-झपटी में कुम्भ से अमृत की बूँदें छलक कर जिन स्थानों पर गिरीं, वे हैं प्रयाग, हरि‍द्वार, नासिक तथा उज्जैन। इन चारों स्थानों पर जिस-जिस समय अमृत गिरा उस समय सूर्य, चन्द्र, गुरु आदि ग्रह-नक्षत्रों तथा अन्य योगों की स्थ‍िति भी उन्हीं स्थ‍ितियों के आने पर प्रत्येक स्थान पर यह कुम्भ पर्व मनाये जाने लगे।
कहते हैं कि कुम्भ की रक्षा के लिए चन्द्रमा, बृहस्पति ने दैत्यों से उसकी रक्षा की और सूर्य ने दानवों के भय से। अंत में विष्णु भगवान ने मोहिनी रूप धारण करके घड़े को अपने हाथ में ले लिया और युक्ति से देवताओं को सब अमृत पिला दिया। पृथ्वी पर जिन स्थानों पर विभिन्न समयों में अमृत की बूँदें गिरी थीं उन स्थानों पर अमृत का पुण्य-लाभ उक्त अवसर पर स्नान करने से मोक्ष के रूप में प्राप्त होता है। इसी आस्था और धार्मिक विश्वास के आधार पर प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में भिन्न-भिन्न समयों पर प्रति बारहवें वर्ष कुम्भ के मेले होते हैं। सिंह राशि में बृहस्पति के स्थित होने के कारण उज्जैन के कुम्भ को सिंहस्थ कुम्भ महापर्वकहते हैं।
इसी प्रकार कुम्भ का धार्मिक महत्व तो स्पष्ट है। इनका संगठनात्मक और सामाजिक महत्व भी है। इन्हें द्वादशवर्षीय जन-सम्मेलन कहना अनुपयुक्त न होगा। बारह वर्षों के पश्चात् साधु-सन्त और महात्मा कुम्भ के बहाने उक्त नगरों में आते हैं। इससे आम लोगों को उनसे आध्यात्मिक सत्संग का लाभ उठाने का अवसर मिलता है। प्राचीन काल में साधु-सन्त नगरों से दूर गुफाओं और जंगलों में ही निवास करते थे। ऐसे ही पर्वों पर वे आम लोगों के बीच आते हैं।

सिंहस्थ कुम्भ महापर्व

भारत के चार कुम्भ पर्वों में उज्जैन का कुम्भ सिंहस्थ कुम्भ महापर्वकहलाता है। यह नगरी अपनी विशिष्ट महानता के लिए भी प्रसिद्ध है। प्राचीन ग्रन्थों में कुरुक्षेत्र से गया को दस गुना, प्रयाग को दस गुना और गया को काशी से दस गुना पवित्र बताया गया है, लेकिन कुशस्थली अर्थात उज्जैन को गया से भी दस गुना पवित्र कहा गया है।
क्षिप्रा नदी ने उज्जैन के महत्व को और भी बढ़ा दिया है। वैशाख मास की पूर्णिमा को क्षिप्रा स्नान मोक्षदायक बताया गया है। उज्जैन में क्षिप्रा-स्नान का महत्व प्रति बारहवें वर्ष पड़ने वाले सिंहस्थ कुम्भ महापर्व पर्व तो और भी अधिक माना जाता है।

आगामी सिंहस्थ कुम्भ महापर्व

सिंहस्थ कुम्भ महापर्व हेतु निम्नानुसार 10 योग वांछित होते हें
o    सिंह राशि में गुरु (बृहस्पति )
o    मेष राशि का सूर्य
o    तुला का चन्द्रमा
o    वैशाख मास
o    शुक्ल पक्ष
o    पूर्णिमा तिथि
o    कुशस्थली- उज्जयिनी तीर्थ
o    स्वाति नक्षत्र
o    व्यतिपात योग
o    सोमवार
उक्त में से सिंहस्थ कुम्भ महापर्व आयोजन हेतु गुरु (बृहस्पति) का सिंह राशि में होना सर्वाधिक आवश्यक योग है और उज्जैन तीर्थ आवश्यक सिद्ध है शेष योगों का योग तत्कालीन ग्रह / तिथि आदि पर निर्भर है।
वैशाख शुक्ल के साथ सिंह का गुरु होना आवश्यक हैं बाकी दस योग में प्रायः ६-७ उपलब्ध हो जाते हैं।
सिंहस्थ कुम्भ महापर्व 2016 की एक माह की अवधि में अलग-अलग ये योग उपलब्ध हो जायेंगे।
o    मेष का सूर्य
o    स्वाति नक्षत्र
o    व्यतिपात योग
o    सोमवार
संवत् 2073 “शिवविशतिः के अंतर्गत होने के साथ ही सोमयुग का भाग भी है। अतः उज्जैन शिव की नगरी होने से इस सिंहस्थ कुम्भ महापर्व में इस संवत् का विशेष महत्व स्वयं ही सिद्ध हैं। इस बार सिंहस्थ कुम्भ महापर्व में प्रथम बार श्रद्धालुओ को पवित्र क्षिप्रा एवं नर्मदा के प्रवाहमान शुद्ध जल में स्नान का शुभ अवसर प्राप्त होगा उल्लेखनीय हे कि विगत सिंहस्थ कुम्भ महापर्व में क्षिप्रा में गंभीर नदी का पानी डाला गया था एवं अनेकों वर्षों से प्रवाहमान नदी में वैशाख माह में स्नान के शुभ अवसर एवं धर्मलाभ श्रद्धालुओ को नहीं हो पाया था। लाखों महिलाएँ और पुरुष इस पवित्र पर्व में भाग लेंगे। साधुओं को भगवा कपड़ों में और विभूति राखों में लिपटा हुआ देखा जा सकता हैं, जैसी कि हमारी परम्परा है। कहा जाता है कि नागा सन्यासी कपड़े नहीं पहन सकते हैं, यहाँ तक कि भयानक सर्दियों में भी और इन्हें  भौतिकवादी दुनिया से अलग होने का प्रतीक माना जाता है।सिंहस्थ कुम्भ महापर्व-2016, उज्जैन में 5 करोड़ से अधिक तीर्थयात्रियों के आने का अनुमान है।
o    अन्तरिम क्षेत्र: 3000 हेक्टेयर
o    शाही स्नान के दिन अधिकतम : 1 करोड़
o    शाही स्नान दिवस पर निवासी आबादी : 20 लाख लगभग
o    महोत्सव अवधि : 30 दिनों के लिए (22-4-2016 से 21-5-2016)
o    6 ज़ोन्स, 22 सेक्टर्स, 4 फ्लैग्स स्टेशन, 6 सैटेलाइट टाउन, सिंहस्थ कुम्भ महापर्व-2016 के दौरान 51 पुलिस चौकियों को बनाया जायेगा।
o    अखाड़ों और साधुओं द्वारा सिंहस्थ कुम्भ महापर्व-2016 के दौरान विभिन्न कार्यक्रम (भागवत कथा, राम कथा, भजन, हवन, सुंदरकाण्ड, पूजन, योग) और सांस्कृतिक कार्यक्रम, प्रदर्शनी और खेल आयोजित किये जायेंगे। कार्यक्रमों की सूची यहाँ शीघ्र ही प्रकाशित की जायेगी।

राम घाट

क्षिप्रा नदी के किनारे स्नान के लिए कई घाट निर्मित हैं। श्रीराम घाट को राम घाट के नाम से भी जाना जाता है। यह सबसे प्राचीन स्नान घाट है, जिस पर कुम्भ मेले के दौरान श्रद्धालु स्नान करना अधिक पसन्द करते हैं। यह हरसिद्धि मंदिर के समीप स्थित है। प्रत्येक बारहवें वर्ष में, कुम्भ मेले के दौरान शहर से लगे हुए घाटों का विस्तार हो जाता है और शुद्धता, स्वच्छता की देवी क्षिप्रा की हजारों श्रद्धालुओं द्वारा पूजा की जाती है।

त्रिवेणी घाट

क्षिप्रा तट पर स्थित त्रिवेणी घाट का नवग्रह मन्दिर तीर्थयात्रियों के लिए आकर्षण का एक प्रमुख केन्द्र है। त्रिवेणी घाट पर ही क्षिप्रा-खान (खान नदी) का संगम है। इन्दौर के लोग खान नदी को विभिन्न नामों से जानते हैं। क्षिप्रा नदी के जल को स्वच्छ रखने के उद्देश्य से खान नदी के दूषित जल को इसमें मिलने नहीं दिया जाता है।

गऊ घाट

देश के श्रद्धालुओं को एक साथ स्नान घाटों पर लाने के लिए सिंहस्थ महाकुम्भ एक प्रमुख आकर्षण है। सिंहस्थ महाकुम्भ के दौरान लाखों श्रद्धालु विभिन्न घाटों पर एकत्रित होते हैं। श्रीराम घाट और नरसिंह घाट उज्जैन के प्राचीन और पवित्र स्नान घाट हैं। धार्मिक महत्व के अलावा उज्जैन के घाट संध्या और प्रातः काल टहलने के लिए भी एक आकर्षक स्थल के रूप में जाने जाते हैं। यह घाट चिंतामन रोड पर वेधशाला के समीप स्थित है।

मंगल नाथ घाट

यह घाट प्रसिद्ध मंगलनाथ मन्दिर के पुल के पास क्षिप्रा नदी के दायें एवं बायें किनारे पर स्थित है। सिंहस्थ महाकुम्भ पर्व एवं धार्मिक पवित्र नहान पर आने वाले श्रद्धालुओं के स्नान हेतु इस घाट का निर्माण किया गया है। यह तीनों घाट मंगलनाथ मन्दिर के निकट ही स्थित है

सिद्धवट घाट

यह घाट प्रसिद्ध सिद्धवट मंदिर के पास क्षिप्रा नदी के बायें किनारे पर स्थित है। सिंहस्थ महाकुम्भ पर्व व धार्मिक पवित्र नहान पर आने वाले श्रद्धालुओं के स्नान हेतु इस घाट का निर्माण किया गया है। इस घाट पर पहुँचने के लिए सिद्धवट मंदिर के पास से ही रास्ता जाता है

कबीर घाट

यह घाट उज्जैन बड़नगर मार्ग पर बड़ी रपट के दायीं तरफ क्षिप्रा नदी के बाँये किनारे पर स्थित है। सिंहस्थ महाकुंभ पर्व व धार्मिक पवित्र स्नान पर आने वाले श्रद्धालुओं के स्नान हेतु इस घाट का निर्माण किया गया है। इस घाट पर पहुँचने के लिए उज्जैन बड़नगर मार्ग पर बड़ी संख्या रपट के बायीं ओर से रास्ता है।

ऋणमुक्तेश्वर घाट

ऋणमुक्तेश्वर मन्दिर के पास ही ये घाट बना हुआ है। इस घाट पर शिवजी के मुख्यगण वीरभद्र की प्राचीन मूर्ति भी है और पुराना वटवृक्ष जिसके नीचे ऋणमुक्तेश्वर महादेव के विभिन्न शिवलिंग एवं प्राचीन गणेश जी की मूर्ति स्थापित है। इस मंदिर के शनिवार को दर्शन करने का अत्यधिक महत्व है। इस मंदिर के पास ही भर्तृहरि गुफा, रूमी का मक़बरा तथा तिलकेश्वर मंदिर स्थित है

भूखीमाता घाट

यह घाट प्रसिद्ध भूखीमाता मन्दिर के पास क्षिप्रा नदी के बाँये किनारे पर स्थित है। सिंहस्थ महाकुम्भ पर्व एवं धार्मिक स्नान के लिए आने वाले श्रद्धालुओं के स्नान हेतु घाट का निर्माण किया गया है। इस घाट पर पहुँचने के लिए उज्जैन चिंतामण मार्ग के बड़े पुले के पास से बायीं तरफ रास्ता जाता है। जिसकी लम्बाई 700 मीटर है।
यह घाट प्रसिद्ध भूखीमाता मंदिर के पास क्षिप्रा नदी के बाँये किनारे पर स्थित है। सिंहस्थ महाकुंभ पर्व एवं पवित्र नहान पर भूखीमाता मंदिर पर आने वाले दर्शनार्थियों के स्नान हेतु निर्मित किया गया है। इस घाट पर पहुँचने के लिए उज्जैन चिंतामण मार्ग के बड़े पहुल के पास बांयी तरफ रास्ता जाता है जिसकी लम्बाई 750 मीटर है।
यह घाट प्रसिद्ध भूखीमाता मंदिर के सामने प्रसिद्ध कर्कराज मंदिर के पास क्षिप्रा नदी पर स्थित है। कर्कराज मंदिर की यह विशेषता है। यह मंदिर उज्जैन से निकलने वाली कर्करेखा पर स्थित है। सिंहस्थ महाकुंभ में पवित्र नहान पर आने वाले श्रद्धालुओं के स्नान हेतु घाट का निर्माण किया गया है। इस घाट पर पहुंचने के लिए उज्जैन चिंतामण मार्ग पर बड़े पुल के दांयी तरफ से रास्ता जाता है। जिसकी लम्बाई 700 मीटर है। घाट निर्माण जल संसाधन विभाग द्वारा किया गया है

दत्त अखाड़ा घाट

यह घाट उज्जैन बड़नगर मार्ग पर छोटी रपट के बायीं तरफ शिप्रा नदी के बांये किनारे पर स्थित है। सिंहस्थ महाकुंभ पर्व एवं धार्मिक पवित्र नहान पर आने वाले श्रद्धालुओं के स्नान हेतु घाट का निर्माण किया गया है। इस घाट पर पहुँचने के लिए उज्जैन बड़नगर मार्ग पर छोटी रपट के बायीं ओर से रास्ता जाता है।

चिन्तामण घाट

यह घाट उज्जैन चिन्तामण मार्ग पर स्थित सड़क के बड़े पुल के पास रेलवे के लालपुल के नीचे क्षिप्रा नदी के बाँये किनारे पर स्थित है। सिंहस्थ महाकुम्भ पर्व एवं धार्मिक पवित्र नहान पर आने वाले श्रद्धालुओं के स्नान हेतु घाट का निर्माण किया गया है। घाट पर पहुँचने हेतु उज्जैन चिन्तामण मार्ग पर बड़े पुल के पास से दायीं तरफ से सीमेण्ट कांक्रीट रास्ता जाता है जिसकी लम्बाई 50 मीटर है

प्रशांति धाम घाट

यह घाट प्रशान्तिधाम मंदिर के प्रांगण में क्षिप्रा नदी के दायें तट पर स्थित है। यह घाट उज्जैन-इन्दौर मार्ग से लगभग 1.5 किलोमीटर दूर दायीं तरफ मंदिर के पास स्थित है। सिंहस्थ महाकुम्भ-2016 में श्रद्धालुओं के स्नान हेतु एवं पवित्र स्नान हेतु घाट को निर्मित किया गया है

नृसिंह घाट

यह घाट प्रसिद्ध भूखीमाता मन्दिर के सामने प्रसिद्ध कर्कराज मन्दिर के दायीं तरफ क्षिप्रा नदी पर स्थित है। कर्कराज मन्दिर की यह विशेषता है कि यह मंदिर उज्जैन से निकलने वाली कर्क रेखा पर स्थित है। सिंहस्थ महाकुम्भ पर्व एवं धार्मिक पवित्र नहान पर आने वाले श्रद्धालुओं के स्नान हेतु घाट का निर्माण किया गया है। इस घाट पर पहुँचने के लिए उज्जैन चिंतामण मार्ग पर बड़े पुल के दायीं तरफ से रास्ता जाता है, जिसकी लम्बाई 500 मीटर है। घाट का निर्माण जल संसाधन विभाग द्वारा किया गया है।
यह घाट उज्जैन बड़नगर मार्ग पर छोटी रपट के बायीं तरफ शिप्रा नदी के दाएँ किनारे पर स्थित है। सिंहस्थ महाकुंभ पर्व एवं धार्मिक पवित्र नहान पर आने वाले श्रद्धालुओं के स्नान हेतु इस घाट का निर्माण किया गया है। इस घाट पर पहुंचने के लिए उज्जैन बड़नगर मार्ग पर छोटी रपट को बायीं ओर से रास्ता जाता है

अखाड़ो का विवरण

सिंहस्थ कुम्भ महापर्व 2016 के दौरान सभी अखाड़े सम्मिलित होते है एवं परंपरागत तरीके से अखाड़ों के सम्मिलित होने से सिंहस्थ कुम्भ महापर्व की शोभा बढ़ती है। अखाड़े अपने पूरे शौर्य एवं दल-बल अनुयायियों के साथ सिंहस्थ कुम्भ महापर्व के दौरान उज्जैन में निवास करते है।
क्र.
अखाड़े का नाम
श्रीमहंत का नाम
पता
1
श्री पंचायती तपोनिधि निरंजनी अखाड़ा
सचिव- श्री नरेन्द्र गिरीजी
मायापुर, हरिद्वार, उत्तरांचल
2
श्री पंचायती आनन्द अखाड़ा
सचिव-श्री शंकरानन्द जी सरस्वती,
त्रयंबकेश्वर, जिला नाशिक
3
श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा
सचिव- श्री हरिगिरीजी महाराज,
बड़ा हनुमान घाट, काशी, वाराणसी
4
श्री पंच दशनामी आह्वान अखाड़ा
सभापति- श्री प्रेमपुरीजी महाराज,
अश्वमेव घाट, काशी, वाराणसी
5
श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा
सचिव- श्री रमेशगिरीजी महाराज
कनखल, हरिद्वार, उत्तरांचल
6
श्री पंच अग्नि अखाड़ा
सचिव- श्री गोविन्दानन्दजी महाराज
मु.पो. बिलखा, जूनागढ़, सौराष्ट्र
7
श्री पंच अटल अखाड़ा
सचिव- श्री उदयगिरीजी
कनखल, हरिद्वार, उत्तरांचल
8
श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा
श्री महंत रघुमुनिजी महाराज
कीड़गंज, इलाहाबाद, उ.प्र.
9
श्री पंचायती उदासीन नया अखाड़ा
सचिव- श्री जगतारमुनि महाराज,
कनखल, हरिद्वार, उत्तरांचल
10
श्री पंचायती निर्मल अखाड़ा
श्री महंत स्वामी ज्ञानदेवसिंह जी
कनखल, हरिद्वार, उत्तरांचल
11
श्री पंच रामानन्दाय निर्वाणी अनि अखाड़ा
श्री महंत धरमदासजी महाराज
हनुमान गढ़ी, अयोध्या, उ.प्र.
12
श्री पंच दिगंबर अनि अखाड़ा
श्री महंत रामकिशनदासजी महाराज
1.अयोध्या, उ.प्र.
2.
श्यामदासजी की झाड़ी, वी.पी. नगरिया, दस विश्वा कोसीकला, मथुरा, उ.प्र.
13
श्री पंच रामान्दीय निर्मोही अनि अखाड़ा
श्री महंत राजेन्द्रदासजी जमालपुर,
1. निर्मोही अखाड़ा नागदा
2.
जगन्नाथ मंदिर, जमालपुर, अहमदाबाद

तिलक का परिचय (ललाट पर लगे तिलक से पंथ की पहचान)

संतों के ललाट पर लगे तिलक से संतों के सम्प्रदाय एवं पंथ की पहचान होती है। इस समय सिंहस्थ महाकुंभ मेला क्षेत्र में अलग-अलग अखाड़ों के साधु-संतों के मस्तक पर आकर्षक तिलक सभी को आकर्षित करते हैं। मस्तक एवं शरीर के अन्य भागों पर लगाये जाने वाले तिलक के संबंध में संत-महात्माओं के अलग-अलग मत है। मुख्य रूप से तीन प्रकार के सम्प्रदाय विशेष के संतों द्वारा चंदन, गोपी चंदन एवं रोली से तिलक लगाया जाता है। तीन प्रकार के तिलक मुख्य रूप से संतों की पहचान का बोध कराते हैं। 1. वैष्णव सम्प्रदाय द्वारा ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाया जाता है, शैव सम्प्रदाय द्वारा ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाया जाता है। इसी प्रकार शाक्त सम्प्रदाय के अनुयायी रोली का तिलक ललाट पर लगाते हैं। महंत श्री नृत्यगोपालदास महाराज ने तिलक की महिमा का वर्णन करते हुए कहा कि तिलक एवं शिखा भारतीय संस्कृति की पहचान है, जिस तरह साधारण मनुष्य शृंगार करते हैं उसी प्रकार यह साधु का एक मुख्य आभूषण है। वैष्णव सम्प्रदाय के ब्रह्मचारी श्री बापोली वालों का कहना है कि तिलक लगाना तीनों अवस्थाओं जाग्रत, स्वप्न एवं सुशुप्ति से ऊपर उठने में सहायक होता है एवं प्रभु को आत्मसात करने का माध्यम होता है। उन्होंने कहा कि तिलक लगाने का भौतिक उद्देश्य भी है। उन्होंने तिलक का भौतिक महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा कि आज के दौर में मनुष्य व्यर्थ चिंतन एवं मनन करता रहता है। उससे मस्तिष्क में उष्मा उत्पन्न होती है एवं तिलक उस उष्मा को शांत करने में सहायक होता है। शैव सम्प्रदाय को मानने वाले त्रिपुण्ड्र लगाते हैं। वे इसकी तुलना ऊँकार से करते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि तिलक वैष्णवों और शैवों में एकता का प्रतीक भी है। ऐसी मान्यता है कि वैष्णव भगवान शंकर का त्रिशूल उध्र्वपुण्ड्र के रूप में मस्तक पर लगाते है एवं शैव सम्प्रदाय को मानने वाले तिलक के रूप में भगवान श्रीराम के धनुष को धारण करते हैं। शक्ति के उपासक शाक्त सम्प्रदाय के उपासक रोली का या काला तिलक लगाते हैं। वे इसे तेजोमय बिन्दु भी कहते हैं। इस बारे में दिल्ली से पधारे शाक्त सम्प्रदाय के उपासक श्री कापालिक महाकाल भैरवानंद सरस्वती जी का कहना है कि भारतीय संस्कृति के अनुसार स्त्री के लिए उसका सुहाग सर्वोच्च है एवं सुहाग की निशानी के तौर पर लाल रंग की रोली से मांग भरती है, ठीक उसी प्रकार हम लोग लाल रंग का तिलक एक सीधी खड़ी लकीर के रूप में लगाते एवं जो यह तिलक लगाता है वह अभागा नहीं होता। तिलक सौभाग्य की निशानी है एवं तिलक इस बात का बोध कराता है कि परमात्मा एक है।

२०१० हरिद्वार महाकुम्भ

महाकुम्भ भारत का एक प्रमुख उत्सव है जो ज्योतिषियों के अनुसार तब आयोजित किया जाता है जब बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करता है। कुम्भ का अर्थ है घड़ा। यह एक पवित्र हिन्दू उत्सव है। यह भारत में चार स्थानो पर आयोजित किया जाता है: प्रयाग (इलाहाबाद), हरिद्वारउज्जैन और नासिक
२०१० का कुम्भ मेला हरिद्वार में आयोजित किया जा रहा है। पिछली बार १९९९ में महाकुम्भ का आयोजन यहाँ किया गया था। मकर संक्राति के दिन अर्थात १४ जनवरी, २०१० को इस मेले का शुभारम्भ हो गया है।[1]हरिद्वार में जारी इस मेले में इस बार ७ करोड़ से भी अधिक लोगों के आने का अनुमान है।[2]
पौराणिक आख्यानों के अनुसार समुद्रमंथन के दौरान निकला अमृतकलश १२ स्थानों पर रखा गया था जहां अमृत की बूंदें छलक गई थीं। इन १२ स्थानों में से आठ ब्रह्मांड में माने जाते हैं और चार धरती पर जहां कुंभ लगता है।
हिन्दू धर्म में मान्यता है कि इस मेले में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

हरिद्वार महाकुंभ का योग

पुराणों आदि प्राचीन ग्रन्थों में उपर्युक्त चारों स्थानों पर महाकुंभ लगने के लिए ग्रहों की विशिष्ट स्थितियाँ बतायी गयी हैं। हरिद्वार के लिए यह इस प्रकार वर्णित है-
पद्मिनीनायके मेषे, कुम्भराशिगते गुरौ। गंगाद्वारे भवेद्योगः कुम्भनाम्ना तदोत्तमः।।[3]
अर्थात् जब सूर्य मेष राशि में हो, बृहस्पति कुंभ राशि में हो, तब गंगाद्वार (हरिद्वार) में कुंभ नाम का उत्तम योग होता है।
उल्लेखनीय है कि बृहस्पति प्रतिवर्ष राशि बदलता है जबकि सूर्य हर महीने राशि बदलता है। तथा २००९ के १९ दिसंबर को यह कुंभ राशि में प्रवेश कर चुका है। सूर्य मेष राशि में १४ अप्रैल २०१० को आयेगा और तभी इस महाकुंभ का प्रमुख स्नान है (१४ अप्रैल को)।

कुम्भ मेला

कुंभ पर्व हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुंभ पर्व स्थल- हरिद्वारप्रयागउज्जैन और नासिक- में स्नान करते हैं। इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष इस पर्व का आयोजन होता है। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ भी होता है। २०१३ का कुम्भ प्रयाग में हो रहा है।
खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशी में और वृहस्पति, मेष राशी में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को "कुम्भ स्नान-योग" कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलिक माना जाता है, क्योंकि यह माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है।यहाँ स्नान करना साक्षात स्वर्ग दर्शन माना जाता है।

अर्ध कुम्भ

अर्धशब्द का अर्थ होता है आधा। और इसी कारण बारह वर्षों के अंतराल में आयोजित होने वाले पूर्ण कुम्भ के बीच अर्थात पूर्ण कुम्भ के छ: वर्ष बाद अर्ध कुंभ आयोजित होता है। हरिद्वार में पिछला कुंभ 1998 में हुआ था।
हरिद्वार में 26 जनवरी से 14 मई 2004 तक चलने वाला अर्ध कुंभ मेला, उत्तरांचल राज्य के गठन के पश्चात ऐसा प्रथम अवसर है। इस दौरान 14 अप्रैल 2004 पवित्र स्नान के लिए सर्वोत्तम दिवस है।

पौराणिक कथाएँ

कुंभ पर्व के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूँदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र 'जयंत' अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा।
इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया।
अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है।
जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ पर्व होता है।

इतिहास

·         १०,००० ईसापूर्व (ईपू) - इतिहासकार एस बी रॉय ने अनुष्ठानिक नदी स्नान को स्वसिद्ध किया।
·         ६०० ईपू - बौद्ध लेखों में नदी मेलों की उपस्थिति।
·         ४०० ईपू - सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी दूत ने एक मेले को प्रतिवेदित किया।
·         ईपू ३०० ईस्वी - रॉय मानते हैं की मेले के वर्तमान स्वरूप ने इसी काल में स्वरूप लिया था। विभिन्न पुराणों और अन्य प्रचीन मौखिक परम्पराओं पर आधारित पाठों में पृथ्वी पर चार विभिन्न स्थानों पर अमृत गिरने का उल्लेख हुआ है।
·         ५४७ - अभान नामक सबसे प्रारम्भिक अखाड़े का लिखित प्रतिवेदन इसी समय का है।
·         ६०० - चीनी यात्री ह्यान-सेंग ने प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद) पर सम्राट हर्ष द्वारा आयोजित कुम्भ में स्नान किया।
·         ९०४ - निरन्जनी अखाड़े का गठन।
·         ११४६ - जूना अखाड़े का गठन।
·         १३०० - कानफटा योगी चरमपंथी साधु राजस्थान सेना में कार्यरत।
·         १३९८ - तैमूर, हिन्दुओं के प्रति सुल्तान की सहिष्णुता के दण्ड स्वरूप दिल्ली को ध्वस्त करता है और फिर हरिद्वार मेले की ओर कूच करता है और हजा़रों श्रद्धालुओं का नरसंहार करता है। विस्तार से - १३९८ हरिद्वार महाकुम्भ नरसंहार
·         १५६५ - मधुसूदन सरस्वती द्वारा दसनामी व्यव्स्था की लड़ाका इकाइयों का गठन।
·         १६८४ - फ़्रांसीसी यात्री तवेर्निए नें भारत में १२ लाख हिन्दू साधुओं के होने का अनुमान लगाया।
·         १६९० - नासिक मे शैव और वैष्णव साम्प्रदायों में संघर्ष; ६०,००० मरे।
·         १७६० - शैवों और वैष्णवों के बीच हरिद्वार मेलें में संघर्ष; ,८०० मरे।
·         १७८० - ब्रिटिशों द्वारा मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिए व्यवस्था की स्थापना।
·         १८२० -हरिद्वार मेले में हुई भगदड़ से ४३० लोग मारे गए।
·         १९०६- ब्रिटिश कलवारी ने साधुओं के बीच मेला में हुई लड़ाई में बीचबचाव किया।
·         १९५४ - चालीस लाख लोगों अर्थात भारत की १% जनसंख्या ने इलाहाबाद में आयोजित कुम्भ में भागीदारी की; भगदड़ में कई सौ लोग मरे।
·         १९८९ - गिनिज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने ६ फ़रवरी के इलाहाबाद मेले में १.५ करोड़ लोगों की उपस्थिति प्रमाणित की, जोकी उस समय तक किसी एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी।
·         १९९५ - इलाहाबाद के अर्धकुम्भ के दौरान ३० जनवरी के स्नान दिवस को २ करोड़ लोगों की उपस्थिति।
·         १९९८ - हरिद्वार महाकुम्भ में ५ करोड़ से अधिक श्रद्धालु चार महीनों के दौरान पधारे; १४ अप्रैल के एक दिन में १ करोड़ लोग उपस्थित।
·         २००१ - इलाहाबाद के मेले में छः सप्ताहों के दौरान ७ करोड़ श्रद्धालु, २४ जनवरी के अकेले दिन ३ करोड़ लोग उपस्थित।
·         २००३ - नासिक मेले में मुख्य स्नान दिवस पर ६० लाख लोग उपस्थित।
·         २००४ - उज्जैन मेला; मुख्य दिवस , १९, २२, २४ अप्रैल और ४ मई
·         २००७ - इलाहाबाद मे अर्धकुम्भ। पवित्र नगरी इलाबाद में अर्धकुम्भ का आयोजन ३ जनवरी २००७ से २६ फ़रवरी २००७ तक हुआ।
·         २०१० - हरिद्वार में महाकुम्भ प्रारम्भ। १४ जनवरी २०१० से २८ अप्रैल २०१० तक आयोजित किया जाएगा। विस्तार से - २०१० हरिद्वार महाकुम्भ
·         २०१५ - नाशिक और त्रयंबकेश्वर में एक साथ जुलाई १४ ,२०१५ को प्रातः ६:१६ पर वर्ष २०१५ का कुम्भ मेला प्रारम्भ हुआ और सितम्बर २५,२०१५ को कुम्भ मेला समाप्त हो जायेगा। [4]