Saturday, November 5, 2016

व्यक्तिगत अधिकार / राइट्स

समानता का अधिकार
समानता का अधिकार संविधान की प्रमुख गारंटियों में से एक है। यह अनुच्छेद 14-16 में सन्निहित हैं जिसमें सामूहिक रूप से कानून के समक्ष समानता तथा गैर-भेदभाव के सामान्य सिद्धांत शामिल हैं, तथा अनुच्छेद 17-18 जो सामूहिक रूप से सामाजिक समानता के दर्शन को आगे बढ़ाते हैं। अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है, इसके साथ ही भारत की सीमाओं के अंदर सभी व्यक्तियों को कानून का समान संरक्षण प्रदान करता है।  इस में कानून के प्राधिकार की अधीनता सबके लिए समान है, साथ ही समान परिस्थितियों में सबके साथ समान व्यवहार। उत्तरवर्ती में राज्य वैध प्रयोजनों के लिए व्यक्तियों का वर्गीकरण कर सकता है, बशर्ते इसके लिए यथोचित आधार मौजूद हो, जिसका अर्थ है कि वर्गीकरण मनमाना न हो, वर्गीकरण किये जाने वाले लोगों में सुगम विभेदन की एक विधि पर आधारित हो, साथ ही वर्गीकरण के द्वारा प्राप्त किए जाने वाले प्रयोजन का तर्कसंगत संबंध होना आवश्यक है।


अनुच्छेद 15 केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान, या इनमें से किसी के ही आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। अंशतः या पूर्णतः राज्य के कोष से संचालित सार्वजनिक मनोरंजन स्थलों या सार्वजनिक रिसोर्ट में निशुल्क प्रवेश के संबंध में यह अधिकार राज्य के साथ-साथ निजी व्यक्तियों के खिलाफ भी प्रवर्तनीय है।हालांकि, राज्य को महिलाओं और बच्चों या अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति सहित सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के नागरिकों के लिए विशेष प्रावधान बनाने से राज्य को रोका नहीं गया है। इस अपवाद का प्रावधान इसलिए किया गया है क्योंकि इसमें वर्णित वर्गो के लोग वंचित माने जाते हैं और उनको विशेष संरक्षण की आवस्यकता है।[38] अनुच्छेद 16 सार्वजनिक रोजगार के संबंध में अवसर की समानता की गारंटी देता है और राज्य को किसी के भी खिलाफ केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, वंश, जन्म स्थान या इनमें से किसी एक के आधार पर भेदभाव करने से रोकता है। किसी भी पिछड़े वर्ग के नागरिकों का सार्वजनिक सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनुश्चित करने के लिए उनके लाभार्थ सकारात्मक कार्रवाई के उपायों के कार्यान्वयन हेतु अपवाद बनाए जाते हैं, साथ ही किसी धार्मिक संस्थान के एक पद को उस धर्म का अनुसरण करने वाले व्यक्ति के लिए आरक्षित किया जाता है
अस्पृश्यता की प्रथा को अनुच्छेद 17 के अंतर्गत एक दंडनीय अपराध घोषित कर किया गया है, इस उद्देश्य को आगे बढ़ाते हुए नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 संसद द्वारा अधिनियमित किया गया है।
अनुच्छेद 18 राज्य को सैन्य या शैक्षणिक विशिष्टता को छोड़कर किसी को भी कोई पदवी दे्ने से रोकता है तथा कोई भी भारतीय नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई पदवी स्वीकार नहीं कर सकता। इस प्रकार, भारतीय कुलीन उपाधियों और अंग्रेजों द्वारा प्रदान की गई और अभिजात्य उपाधियों को समाप्त कर दिया गया है। हालांकि, भारत रत्न पुरस्कारों जैसे, भारतरत्न को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस आधार पर मान्य घोषित किया गया है कि ये पुरस्कार मात्र अलंकरण हैं और प्रप्तकर्ता द्वारा पदवी के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता

स्वतंत्रता का अधिकार
संविधान के निर्माताओं द्वारा महत्वपूर्ण माने गए व्यक्तिगत अधिकारों की गारंटी देने की दृष्टि से स्वतंत्रता के अधिकार को अनुच्छेद 19-22 में शामिल किया गया है और इन अनुच्छेदों में कुछ प्रतिबंध भी शामिल हैं जिन्हें विशेष परिस्थितियों में राज्य द्वारा व्यक्तिगं स्वतंत्रता पर लागू किया जा सकता है। अनुच्छेद 19 नागरिक अधिकारों के रूप में छः प्रकार की स्वतंत्रताओं की गारंटी देता है जो केवल भारतीय नागरिकों को ही उपलब्ध हैं।[42] इनमें शामिल हैं भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, एकत्र होने की स्वतंत्रता, हथियार रखने की स्वतंत्रता, भारत के राज्यक्षेत्र में कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रतता, भारत के किसी भी भाग में बसने और निवास करने की स्वतंत्रता तथा कोई भी पेशा अपनाने की स्वतंत्रता। ये सभी स्वतंत्रताएं अनुच्छेद 19 में ही वर्णित कुछ उचित प्रतिबंधों के अधीन होती हैं, दिन्हें राज्य द्वारा उन पर लागू किया जा सकता है। किस स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया जाना प्रस्तावित है, इसके आधार पर प्रतिबंधों को लागू करने के आधार बदलते रहते हैं, इनमें शामिल हैं राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता, न्यायालय की अवमानना, अपराधों को भड़काना और मानहानि। आम जनता के हित में किसी व्यापार, उद्योग या सेवा का नागरिकों के अपवर्जन के लिए राष्ट्रीयकरण करने के लिए राज्य को भी सशक्त किया गया है।[43]
अनुच्छेद 20 अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण प्रदान करता है, जिनमें शामिल हैं पूर्वव्यापी कानून व दोहरे दंड के विरुद्ध अधिकार तथा आत्म-दोषारोपण से स्वतंत्रता प्रदान करता है।[52] अनुच्छेद 22 गिरफ्तार हुए और हिरासत में लिए गए लोगों को विशेष अधिकार प्रदान करता है, विशेष रूप से गिरफ्तारी के आधार सूचित किए जाने, अपनी पसंद के एक वकील से सलाह करने, गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर एक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने और मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना उस अवधि से अधिक हिरासत में न रखे जाने का अधिकार।[53] संविधान राज्य को भी अनुच्छेद 22 में उपलब्ध रक्षक उपायों के अधीन, निवारक निरोध के लिए कानून बनाने के लिए अधिकृत करता है।[54] निवारक निरोध से संबंधित प्रावधानों पर संशयवाद तथा आशंकाओं के साथ चर्चा करने के बाद संविधान सभा ने कुछ संशोधनों के साथ 1949 में अनिच्छा के साथ अनुमोदन किया था।[55] अनुच्छेद 22 में प्रावधान है कि जब एक व्यक्ति को निवारक निरोध के किसी भी कानून के तहत हिरासत में लिया गया है, ऐसे व्यक्ति को राज्य केवल तीन महीने के लिए परीक्षण के बिना गिरफ्तार कर सकता है, इससे लंबी अवधि के लिए किसी भी निरोध के लिए एक सलाहकार बोर्ड द्वारा अधिकृत किया जाना आवश्यक है। हिरासत में लिए गए व्यक्ति को भी अधिकार है कि उसे हिरासत के आधार के बारे में सूचित किया जाएगा और इसके विरुद्ध जितना जल्दी अवसर मिले अभ्यावेदन करने की अनुमति दी जाएगी।

शोषण के खिलाफ अधिकार

राइट्स के अंतर्गत शोषण के खिलाफ बाल श्रम और भिक्षुक निषिद्ध हो गए।
शोषण के विरुद्ध अधिकार, अनुच्छेद 23-24 में निहित हैं, इनमें राज्य या व्यक्तियों द्वारा समाज के कमजोर वर्गों का शोषण रोकने के लिए कुछ प्रावधान किए गए हैं।[57] अनुच्छेद 23 के प्रावधान के अनुसार मानव तस्करी को प्रतिबन्धित है, इसे कानून द्वारा दंडनीय अपराध बनाया गया है, साथ ही बेगार या किसी व्यक्ति को पारिश्रमिक दिए बिना उसे काम करने के लिए मजबूर करना जहां कानूनन काम न करने के लिए या पारिश्रमिक प्राप्त करने के लिए हकदार है, भी प्रतिबंधित किया गया है। हालांकि, यह राज्य को सार्वजनिक प्रयोजन के लिए सेना में अनिवार्य भर्ती तथा सामुदायिक सेवा सहित, अनिवार्य सेवा लागू करने की अनुमति देता है।[58][59] बंधुआ श्रम व्यवस्था (उन्मूलन) अधिनियम, 1976, को इस अनुच्छेद में प्रभावी करने के लिए संसद द्वारा अधिनियमित किया गया है।[60] अनुच्छेद 24 कारखानों, खानों और अन्य खतरनाक नौकरियों में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है। संसद ने बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986 अधिनियमित किया है, जिसमें उन्मूलन के लिए नियम प्रदान करने और बाल श्रमिक को रोजगार देने पर दंड के तथा पूर्व बाल श्रमिकों के पुनर्वास के लिए भी प्रावधान दिए गए हैं।

धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार
धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 25-28 में निहित है, जो सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता है और भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य सुनिश्चित करता है। संविधान के अनुसार, यहां कोई आधिकारिक राज्य धर्म नहीं है और राज्य द्वारा सभी धर्मों के साथ निष्पक्षता और तटस्थता से व्यवहार किया जाना चाहिए।[62] अनुच्छेद 25 सभी लोगों को विवेक की स्वतंत्रता तथा अपनी पसंद के धर्म के उपदेश, अभ्यास और प्रचार की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। हालांकि, यह अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य तथा राज्य की सामाजिक कल्याण और सुधार के उपाय करने की शक्ति के अधीन होते हैं।[63] हालांकि, प्रचार के अधिकार में किसी अन्य व्यक्ति के धर्मांतरण का अधिकार शामिल नहीं है, क्योंकि इससे उस व्यक्ति के विवेक के अधिकार का हनन होता है।[64] अनुच्छेद 26 सभी धार्मिक संप्रदायों तथा पंथों को सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता तथा स्वास्थ्य के अधीन अपने धार्मिक मामलों का स्वयं प्रबंधन करने, अपने स्तर पर धर्मार्थ या धार्मिक प्रयोजन से संस्थाएं स्थापित करने और कानून के अनुसार संपत्ति रखने, प्राप्त करने और उसका प्रबंधन करने के अधिकार की गारंटी देता है। ये प्रावधान राज्य की धार्मिक संप्रदायों से संबंधित संपत्ति का अधिग्रहण करने की शक्ति को कम नहीं करते।[65]राज्य को धार्मिक अनुसरण से जुड़ी किसी भी आर्थिक, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधि का विनियमन करने की शक्ति दी गई है।[62] अनुच्छेद 27 की गारंटी देता है कि किसी भी व्यक्ति को किसी विशेष धर्म या धार्मिक संस्था को बढ़ावा देने के लिए टैक्स देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।[66] अनुच्छेद 28 पूर्णतः राज्य द्वारा वित्तपोषित शैक्षिक संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा का निषेध करता है तथा राज्य से वित्तीय सहायता लेने वाली शैक्षिक संस्थाएं, अपने किसी सदस्य को उनकी (या उनके अभिभावकों की) स्वाकृति के बिना धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने या धार्मिक पूजा में भाग लेने के लिए मजबूर नहीं कर सकतीं।

सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार
अनुच्छेद 29 व 30 में दिए गए सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार, उन्हें अपनी विरासत का संरक्षण करने और उसे भेदभाव से बचाने के लिए सक्षम बनाते हुए सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के उपाय हैं।[67] अनुच्छेद 29 अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि और संस्कृति रखने वाले नागरिकों के किसी भी वर्ग को उनका संरक्षण और विकास करने का अधिकार प्रदान करता है, इस प्रकार राज्य को उन पर किसी बाह्य संस्कृति को थोपने से रोकता है।[67][68] यह राज्य द्वारा चलाई जा रही या वित्तपोषित शैक्षिक संस्थाओं को, प्रवेश देते समय किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव करने से भी रोकता है। हालांकि, यह सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए राज्य द्वारा उचित संख्या में सीटों के आरक्षण तथा साथ ही एक अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा चलाई जा रही शैक्षिक संस्था में उस समुदाय से संबंधिक नागरिकों के लिए 50 प्रतिशत तक सीटों के आरक्षण के अधीन है।[69]
अनुच्छेद 30 सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी स्वयं की संस्कृति को बनाए रखने और विकसित करने के लिए अपनी पसंद की शैक्षिक संस्थाएं स्थापित करने और चलाने का अधिकार प्रदान करता है और राज्य को, वित्तीय सहायता देते समय किसी भी संस्था के साथ इस आधार पर कि उसे एक धार्मिक या सांस्कृतिक अल्पसंख्यक द्वारा चलाया जा रहा है, भेदभाव करने से रोकता है।[68] हालांकि शब्द "अल्पसंख्यक" को संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई व्याख्या के अनुसार इसका अर्थ है कोई भी समुदाय जिसके सदस्यों की संख्या, जिस राज्य में अनुच्छेद 30 के अंतर्गत अधिकार चाहिए, उस राज्य की जनसंख्या के 50 प्रतिशत से कम हो। इस अधिकार का दावा करने के लिए, यह जरूरी है कि शैक्षिक संस्था को किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित और प्रशासित किया गया हो। इसके अलावा, अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार का लाभ उठाया जा सकता है, भले ही स्थापित की गई शैक्षिक संस्था स्वयं को केवल संबंधित अल्पसंख्यक समुदाय के धर्म या भाषा के शिक्षण तक सीमित नहीं रखती, या उस संस्था के अधिसंख्य छात्र संबंधित अल्पसंख्यक समुदाय से संबंध नहीं रखते हों।[70] यह अधिकार शैक्षिक मानकों, कर्मचारियों की सेवा की शर्तों, शुल्क संरचना और दी गई सहायता के उपयोग के संबंध में उचित विनियमन लागू करने की राज्य की शक्ति के अधीन है।

संवैधानिक उपचारों का अधिकार
संवैधानिक उपचारों का अधिकार नागरिकों को अपने मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन या उल्लंघन के विरुद्ध सुरक्षा के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय में जाने की शक्ति देता है।[72] अनुच्छेद 32 स्वयं एक मौलिक अधिकार के रूप में, अन्य मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए गारंटी प्रदान करता है, संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को इन अधिकारों के रक्षक के रूप में नामित किया गया है।[73] सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, उत्प्रेषण और अधिकार पृच्छा प्रादेश (रिट, writ) जारी करने का अधिकार दिया गया है, जबकि उच्च न्यायालयों को अनुच्छेद 226 - जो एक मैलिक अधिकार नहीं है - मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न होने पर भी इन विशेषाधिकार प्रादेशों को जारी करने का अधिकार दिया गया है।[74] निजी संस्थाओं के खिलाफ भी मौलिक अधिकार को लागू करना तथा उल्लंघन के मामले में प्रभावित व्यक्ति को समुचित मुआवजे का आदेश जारी करना भी सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वप्रेरणा से या जनहित याचिका के आधार पर अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग कर सकता है।[72] अनुच्छेद 359 के प्रावधानों जबकि आपातकाल लागू हो, को छोड़कर यह अधिकार कभी भी निलंबित नहीं किया जा सकता।[73]